शुक्रवार, 7 दिसंबर 2007

एक परिचय : उपेन्द्र शंकर

दिल्ली में पैदा हुआ, दिल्ली में ही पला-बढ़ा, 1980 में दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से एमए किया। उसी वर्ष से मिनिस्ट्री ऑफ स्टैटिक्स एंड प्रोग्राम प्लानिंग में नौकरी कर रहा हूं। हमने 1982 में अंतरजातीय विवाह किया। परिवार में दो बच्चे राहुल और निधि हैं। राहुल पेशे से आर्किटेक्ट है और जयपुर में चलने वाले हर अभियान में मदद करता है। निधि फिल्म संपादन और डॉक्यूमेंटरी का काम करती है।
हमारे समाजकर्म की शुरुआत प्रासंगिक संवाद समिति से हुई। प्रासंगिक संवाद श्रृंखला अखबारों व गांवों में भेजा करते थे। 1983 से लेकर 92 तक नियमित निकालते रहे। मैं और मेरी पत्नी सुनीता दिल्ली की बसों में बांटा करते थे। सोच ये थी कि उन तक सूचनाएं पहुंचनी चाहिए, जो कुछ करें, पढ़े और विचार प्रक्रिया शुरू हो। प्रासंगिक संवाद समिति का पहले अंक का प्रकाशन वर्ल्ड फूड-डे पर हुआ था। इसमें यह बहस करने की कोशिश की गई थी कि क्लब ऑफ रोम के जीरो रेट ग्रोथ थ्योरी पर चर्चा हो। जीरो रेट ग्रोथ थ्योरी के पीछे कांसेप्ट यह है कि जीरो रेट ग्रोथ होने पर पर्यावरण का विनाश बंद हो जाएगा, पर यह थ्योरी गरीब मुल्कों के भूखे लोगों के लिए कुछ भी देने को तैयार नहीं थी।
प्रासंगिक संवाद समिति के कुल 34 अंक हम लोगों ने निकाले। शुरू में साइक्लोस्टाइल से निकालते थे। बाद में छपे अंक भी निकले। पर हम इस संवाद समिति को नियमित न रख सके। 92 आते-आते यह बंद करनी पड़ी। आर्थिक दिक्कतों के अलावा सरकार की नौकरी इसमें सबसे बड़ी बाधा थी।
संवाद समिति का काम विभिन्न संगठनों, आंदोलनों के कार्यक्रमों की सूचना और विचार राजस्थान के हजारों लोगों और दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं तक पहुंचा देने का था। संवाद समिति में विनय सेंगर, सुनीता ने नियमित काम किया।
89 के दौरान में ही किशन पटनायक जी के समता संगठन से परिचय हुआ। उसके बाद मैं सामयिक वार्ता की टीम से जुड़ गया। सामयिक वार्ता के वितरण, प्रचार-प्रसार का काम शुरू किया। राजस्थान के पुराने समाजवादियों से मिला। राजस्थान में सामयिक वार्ता के प्रचार-प्रसार का असर हुआ। हजारों प्रतियां राजस्थान में सामयिक वार्ता की पहुंचने लगीं। उसी दौरान लोहिया जी के व्याख्यानों के आडियो टेप सुनने को मिले, जिससे लोहिया विचारधारा की ओर झुकाव हुआ।
93 के साल में शिक्षा सुधार मोर्चा की शुरुआत हम लोगों ने की। सर्वोदयी कार्यकर्ता राजेंद्र कुम्भज, पी. एन. नंदोला, सुनीता, सवाई सिंह आदि के साथ मिलकर इस मोर्चे की शुरुआत की गई। मोर्चे के पीछे धारण्ाा यह थी कि प्राइवेट स्कूलों के रेगुलेशन के लिए एक रेगुलेटिरी बॉडी बननी चाहिए। इसके लिए हम लोगों ने धरने-प्रदर्शन और अभिभावकों की सभाओं का काम शुरू किया। लगातार चार साल तक हमारी कैम्पेनिंग चलती रही। दबाव में राजस्थान सरकार ने शिक्षा सचिव की अध्यक्षता में एक मीटिंग बुलाई। मीटिंग में शिक्षा सुधार मोर्चा संगठन के लोगों के अलावा प्राइवेट स्कूलों के प्रबंधकों-प्रधानाचार्यों और अभिभावक संघों के लोगों को बुलाया। काफी गरमा-गरम बहस के बीच शिक्षा सचिव इस पूरे मसले को प्राइवेट स्कूल बनाम शिक्षा सुधार मोर्चा करने में सफल हो गया। उदारीकरण की लहर तब तक चल पड़ी थी। इससे प्रभावित शिक्षा सचिव बैठक में यह तय कराने में सफल रहा कि अभिभावक संघ और प्राइवेट स्कूल प्रबंधकों की एक कमेटी बना दी जाए, जो प्राइवेट विद्यालयों में फीस, पाठयक्रम, स्टाफ के बारे में निर्णय कर ले। इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। हश्र यह हुआ कि उस कमेटी की कभी बैठक नहीं हो पाई और न ही कुछ हो पाया।
राजस्थान में पानी की कमी और पानी का धीरे-धीरे फ्लोराइट युक्त होना, भूजल का गिरता स्तर हमारे ध्यान में धीरे-धीरे आने लगा। कई बार की संवाद प्रक्रिया और सेमिनारों के बाद हम धीरे-धीरे इस समझ पर पहुंचे कि जयपुर में अगर पानी की समस्या का निजात करना है तो हमें जयपुर की तीन नदियों द्रव्यवती, बांडी और ढुंढ को जिंदा करना होगा। सत्तर के दशक की शुरुआत तक इन नदियों में पानी हुआ करता था और अंग्रेजों के मिले नक्शों और तथ्यों के आधार पर यह बहुत दावे के साथ कहा जा सकता है कि सन् 1930 तक ये नदियां सदानीरा थीं।
अभी हमने ज्यादा ताकत और ध्यान द्रव्यवती नदी पर ही कर रखा है। कभी यह नदी जयपुर की जीवनरेखा थी। जयपुर शहर के उत्तर-पश्चिम से निकलकर पश्चिम-दक्षिण होती हुई, ढूण्ड नदी में मिलने वाली, द्रव्यवती नदी, उर्फ अमानी शाह का नाला, जयपुर शहर की जीवनरेखा रही है। सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित सन् 1865-66 के नक्शों में भी इस नदी को साफ तौर पर दर्शाया गया है। उसके बाद भी सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित नक्शों में नदी साफ तौर पर चिन्हित है। यदि नदी कहीं नहीं है, तो राजस्थान सरकार के राजस्व विभाग के रिकार्ड में। अत: जयपुर शहर के प्रमुख नागरिकों, जनसंगठनों, स्वयंसेवी संस्थाओं तथा गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा जलधारा अभियान के बैनर तले, पिछले 4 वर्षों से इस नदी के संरक्षण-संवर्धन के लिए अभियान चलाया जा रहा है।
2001 के आसपास संगठन ने फ्लोराइड के असर पर जयपुर के आसपास के गांव और शहरी इलाके में सर्वे का काम शुरू किया। देखने में यह आया कि पानी की कमी और प्रदूषण के कारण भूजल में फ्लोराइड की मात्रा काफी बढ़ गई है, जिसके कारण लोगों के हाथ-पैर टेढ़े हो गए हैं। पत्रकार मित्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सुझाव पर हम लोगों ने द्रव्यवती नदी को बचाने के लिए जलधारा अभियान की शुरुआत की। फरवरी 2003 में सांगानेर कस्बे में एक बहुत बड़ी रैली का आयोजन किया गया। रैली के सभामंच को तत्कालीन कांग्रेस सरकार की जल संसाधन मंत्री माननीया कमला और कांग्रेसी नेताओं ने कब्जा लिया और जलधारा अभियान के कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट भी की। कांग्रेस के लोगों का कहना था कि पानी की कोई कमी नहीं है और कमी हुई तो हम विशलपुर बांध से जयपुर के लिए पानी ले आएंगे।
मजे की बात यह रही कि सरकार आंकड़ों से भी द्रव्यवती नदी का नाम गायब होने लगा था। 1981 के एक सर्वे में बाकायदा इस नदी का नाम अमानीशाह नाला रख दिया गया। पहली लड़ाई तो हमारी यहीं शुरू हुई कि अमानीशाह नाले को सरकार नदी के रूप में स्वीकार करे और नदी का एक मानचित्रीकरण हो ताकि इसके पेटे में आवासीय कॉलोनियां और बस्तियों को बसने से रोका जा सके। 2004 तक आते-आते हम सरकार पर दबाव बनाने में सफल रहे। सरकार ने इसके लिए एक प्लान बनाया। नदी का सर्वे करके और पुराने आंकड़ों के आधार पर चिन्हीकरण हुआ। नदी के क्षेत्रफल को परिभाषित करने वाले नदी के किनारों पर पिलर लगा दिए गए और सरकार ने आदेश जारी किए कि इस क्षेत्र के अंदर कोई भी निर्माण अवैध माना जाएगा।
पर फरवरी 2007 में सरकार ने दुबारा फिर सर्वे किया है और नदी की चौड़ाई सरकार ने काफी कम कर दी है। आप इस टेबिल में यह देख सकते हैं। यह सारा काम भू-माफियाओं के दबाव में किया जा रहा है। भू-माफिया और रीयल एस्टेट बिल्डर्स नदी के पेटे और खादर क्षेत्र में निर्माण काम कर रहे हैं, जो सरकार पर दबाव बनाकर के नदी की चौड़ाई कम कराने में सफल रहे हैं। हमने राजस्थान सरकार के नगर विकास प्रधान सचिव से सूचना के अधिकार के तहत इस संबंध में जब जानकारी चाही तो उन्होंने हमें लिखित सूचना के बजाय बातचीत के लिए आमंत्रित किया और कहा कि बारिश कम हो रही है तो नदी को आखिर इतनी चौड़ाई की जरूरत क्या है? और वैसे भी यह सारा मामला राजनीतिक है, क्योंकि भू-माफिया और नदी के खादर क्षेत्र में बसे लाखों लोगों को उजाड़ने का काम पूरी तरह सरकार के ही निर्णय से संभव है। बेहतर है कि आप मुख्यमंत्री से बात करें।
सरकार एवं उसके विभिन्न विभागों तथा निकायों द्वारा इस नदी के संरक्षण संवर्धन के नाम पर जो प्लान बनाये, उनमें भारी अनियमितताओं को देख लगता है कि ''सरकार स्वयं ही इस नदी को नाले में तब्दील करने पर अमादा है''। अत: हमने जानना चाहा कि
1 . सर्वे ऑफ इंडिया के विभिन्न नक्शों में जब नदी का प्राकृतिक सीमांकन मौजूद है, जिसे कि वर्तमान में आधुनिक तकनीकी उपकरणों की मदद से सफलतापूर्वक नापा जा सकता है, तो फिर नदी का स्वेच्छाचारी सीमांकन क्यों किया जा रहा है?
2 .एक बार सीमांकन कर लेने के पश्चात् और उसके अनुसार चौड़ाई नियत कर पिलर लगा देने के बाद दुबारा सीमांकन की जरूरत क्यों पड़ी? पहला सीमांकन क्यों कर निरस्त कर किया गया?
3 . दूसरे सीमांकन को किन आधारों पर तय किया गया, जबकि नदी की चौड़ाई टोपो शीट में दिखायी प्राकृतिक चौड़ाई से, प्रथम सर्वे के अनुसार गाड़े गए पिलर तथा वर्तमान सर्वे में नियत की गई चौड़ाई में काफी अन्तर है। इसको नीचे दी गई तालिका में साफ देखा जा सकता है।
4 . राजस्व रिकार्ड में नदी की जितनी जमीन निजी खातेदारों के नाम है, उसे निरस्त कर, नदी की जमीन के खाते में क्यों नहीं रखा जा रहा? इसके लिए गजट नोटिफिकेशन क्यों नहीं जारी किया जा रहा?
5 . जे.डी.ए. के द्वारा सर्वे कराकर सीमांकन किया गया। इसके बाद भी नदी की भूमि में अतिक्रमण तेजी से होता रहा और सरकार, जे.डी.ए. मूकदर्शक बनी क्यों देखती रही?
6 . जलधारा अभियान, सरकार से मांग करता है कि नदी का स्वेच्छाचारी सीमांकन निरस्त किया जाये और प्राकृतिक सीमांकन को ही आधार बनाकर, नदी का संरक्षण एवं जीर्णोध्दार किया जाए।
हमने जलधारा अभियान के तहत राजस्थान सरकार से सभी नदी-नालों के लिए एक नीतिगत फैसला कराने, राजस्थान की सभी नदियों का मानचित्रीकरण कराने के लिए हम लोगों ने पदयात्रा का भी आयोजन किया। द्रव्यवती नदी के किनारे पुराने रजवाड़ों का बंगला, बोट हाउस के साथ ही नदी पर बने कई बांध और बांध से निकली नदियां गवाह हैं कि द्रव्यवती नदी सदानीरा हुआ करती थी।
नदियों के मामले में सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि केंद्रीय जल आयोग की परिभाषाओं में सिर्फ बड़ी नदियां ही नदी मानीं जाती हैं। केंद्रीय जल आयोग ने राजस्थान में सिर्फ चम्बल को ही नदी के रूप में चिन्हित कर रखा है। हजारों छोटी नदियों के संबंध में कोई भी आयोग, बोर्ड, कमीशन कुछ भी नहीं है। राजस्थान में बीकानेर और चुरू को छोड़कर कोई ऐसा जिला नहीं है जहां नदियां न हों। हमें इन छोटी नदियों को जिंदा रखना होगा। जिन्दा इसलिए भी रखना होगा कि ये नदियां सिर्फ पानी का प्रवाह ही नहीं करतीं, बल्कि भूमिगत धाराओं को भी जिंदा करती हैं। अगर ये छोटी नदियां मरती हैं तो भूमिगत धाराएं भी मर जाएंगी। छोटी नदियों का दोहरा महत्व है। जमीन के नीचे की धारा को जिंदा रखने के लिए ऊपर की धारा जिंदा होनी चाहिए। ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति में जब मौसम अनियमित हो जाएगा। अत्यधिक वर्षा, अत्यधिक सूखा, अत्यधिक तूफान इन सबमें छोटी नदियाें की जरूरत होगी। अधिक वर्षा की स्थिति में ये छोटी नदियां बाढ़ के पानी को बहाकर नीचे ले जाएंगी और सूखे की स्थिति में जमीन की नमी बनाए रखने में योगदान करेंगी। जमीन की नमी से ही पेड़-पौधाें का जीवन है। पेड़-पौधों से ही पर्यावरण और पर्यावरण, वन्य जीवन, प्रकृति, मानव अस्तित्व संभव है। बाड़मेर में आई बाढ़ इसका ज्वलंत उदाहरण है। बाड़मेर की कवास नदी जो पूरी तरह मर चुकी है और उसके पेटे में आवासीय कॉलोनियां बस गई हैं, यही वजह हुई कि थोड़ा भी ज्यादा पानी बरसा तो पूरा बाड़मेर डूब गया।
जमीन की यह भूख क्यों है? क्या जनसंख्या वृध्दि ही मुख्य कारण है? पर मैं तो इससे बड़ा कारण शहरी भूमि हदबंदी सीमा का खत्म होना मानता हूं। पहले जयपुर में मात्र 500 वर्ग मीटर अधिकतम भूमि सीमा था। इससे ज्यादा जमीन कोई नहीं रख सकता था, पर अब तो जयपुर विकास प्राधिकरण ही 1500 वर्ग मीटर के प्लॉट बेच रहा है। पहले लोग शेयर और गोल्ड में निवेश करते थे, अब तो भूमि में कर रहे हैं। परिणाम सामने है कि पूरा देश रीयल एस्टेट के रूप में विकसित होने की दिशा में बन गया है।
हमने राजस्थान के विभिन्न पानी पर काम करने वाले लोगों के साथ राजस्थान की सैकड़ों छोटी नदियों को बचाने के लिए एकजुट करने का काम शुरू कर दिया है। अगले साल की फरवरी में एक बड़ा नदी सम्मेलन जयपुर में हम लोग कर रहे हैं। हमारी यह कोशिश सांभर झील को बचाने की दिशा में एक प्रयास है। 300 वर्ग किलोमीटर में फैली सांभर झील को दो दर्जन से ज्यादा छोटी नदियां ही भरती थीं पर अब सांभर झील सूखने की कगार पर है, क्योंकि इसको भरने वाली नदियां खुद ही सूख गई हैं। कोशिश है कि सांभर झील से जुड़ी सभी नदियों को सदानीरा बनाया जाए।
नदियों की इस लड़ाई में भू-माफियाओं से काफी परेशानियां हुई हैं पर हमने नदियों के नहरों से सिंचित इलाके के लोगों को एकजुट करने का काम शुरू किया है, जिनकी एकजुटता की वजह से ही भू-माफियाओं से हम लड़ने में सफल हो पा रहे हैं। इस सारे काम में पानी के नाम पर करोड़ों रुपए का फंड लेने वाले बड़े-बड़े एनजीओ दूर से ही तमाशा देख रहे हैं, क्योंकि इसमें सरकारों से बार-बार झगड़ा होने की संभावना बनी रहती है। पर हमने जलधारा अभियान को पूरी तरह से जन सहयोग के ही माध्यम से चला रखा है।